Tuesday, November 11, 2008

कुछ , जो पड़ा और सुना

बहरा हूँ मै तो चाहिए कि दूना हो इल्तिफात
सुनता नहीं हूँ बात मुकरर कहे बगैर
* * * * * *

हम न समझे थे बात इतनी सी
ख्वाब शीशे के ,दुनिया पत्थर की .......
...रोशनी अपने साथ लायी थी साए
साए गहरे थे ...रोशनी हलकी ......
हम न समझे थे .......
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“सुबह से शाम तक बोझ ढोता हुआ
अपनी ही लाश का ख़ुद मजार आदमी
हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी
फिर भी तन्हाइयो का शिकार आदमी
हर तरफ़ दौड़ते भागते रास्ते
हर तरफ़ आदमी का शिकार आदमी
रोज जीता हुआ रोज मरता हुआ
हर नए दिन नया इंतजार आदमी
फिर भी तन्हाइयो का शिकार आदमी
जिन्दगी का मुकद्दर सफर दर सफर
आखिरी साँस तक बेकरार आदमी ’’



* * * * * * * * *

“…….धुँआ बना के फिजा में उड़ा दिया मुझको
मै जल रहा था, किसी ने बुझा दिया मुझको …।

मैं एक जर्रा बुलन्दी को छूने निकला था
हवाओं ने थम के जमीं पे गिरा दिया मुझको . . . .
धुआं बना के फिजा में
..."

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