कभी कभी ऎसा होता है कि
पहले अनुभूति आती है- अस्पष्ट और अहेतुक!
फिर, बाद में, धुएं की सीढ़ी से नीचे उतरते हुये,
वह भाषा की बगिया में
शब्दों के फूलों पर
रंग व सौरभ सी बट जाती है !
लेकिन ऎसा होते समय बहुत बार
कोष यकायक ही समाप्त हो जाता है ,
बहुत से फूल रंगहीन और मृत ही पड़े रह जाते है !
और कविता बीच में ही अटक जाती है !
इसके विपरीत
अक्सर ऎसा होता है कि
सरसो के दाने सी एक छोटी सी महसूसन
शब्दों को समर्पित करता हूं!
मैं और उल्लसित शब्द मिलकर
बडे़ करीने से उसे गढ़ते है ,
भाषा के सोपान चढ़ते हैं !
महसूसन का वह भ्रूण
विकस कर पुष्प सा खिल जाता है ,
और अन्ततः
एक अच्छी कविता बन जाती है!
पहले अनुभूति आती है- अस्पष्ट और अहेतुक!
फिर, बाद में, धुएं की सीढ़ी से नीचे उतरते हुये,
वह भाषा की बगिया में
शब्दों के फूलों पर
रंग व सौरभ सी बट जाती है !
लेकिन ऎसा होते समय बहुत बार
कोष यकायक ही समाप्त हो जाता है ,
बहुत से फूल रंगहीन और मृत ही पड़े रह जाते है !
और कविता बीच में ही अटक जाती है !
इसके विपरीत
अक्सर ऎसा होता है कि
सरसो के दाने सी एक छोटी सी महसूसन
शब्दों को समर्पित करता हूं!
मैं और उल्लसित शब्द मिलकर
बडे़ करीने से उसे गढ़ते है ,
भाषा के सोपान चढ़ते हैं !
महसूसन का वह भ्रूण
विकस कर पुष्प सा खिल जाता है ,
और अन्ततः
एक अच्छी कविता बन जाती है!
लेकिन ऎसा होते समय बहुत बार
ReplyDeleteकोष यकायक ही समाप्त हो जाता है ,
बहुत से फूल रंगहीन और मृत ही पड़े रह जाते है !
और कविता बीच में ही अटक जाती है !
बहुत ही सुंदर पंक्तियाँ हैं ......सुंदर कविता.
(वह सम्बोधि मेरा नही था भाई. वो जिसका था उस तक आपका मुबारकबाद पहुँच जाए दुआ कीजिये )
फिर, बाद में, धुएं की सीढ़ी से नीचे उतरते हुये,
ReplyDelete....
आपके भावों की गहराई ...और शब्दों का जादू बहुत अच्छा है
अनिल कान्त
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
बहुत भारी-भरकम कविता है, भई ! बहुत गूढ़ भाव!
ReplyDeleteमैं और उल्लसित शब्द मिलकर
ReplyDeleteबडे़ करीने से उसे गढ़ते है ,
भाषा के सोपान चढ़ते हैं !
सुंदर अभिव्यक्ति और गहरे भाव लिए हैं यह रचना ..बढ़िया लिखा
अनुभुति-अहेतुक?
ReplyDeleteमहसूसन जैसा शब्द प्रयोग करते हुए शब्द-रचना का भ्रम तो नहीं पाल बैठे?
पता नहीं क्यों, हर एक कविता में फ़ूल खिलता भी है और नहीं भी खिलता है.
पता नहीं क्यों शरीर का भ्रूण-विलास बहुत ही सुलभ है यहां.
आदि,आदि .