तुम्हारे बायें कपोल पर
ठीक कान के पास से
नव्य हरित लतिका प्रतान सी
एक हल्की सी रेखा
ठुड्डी के पीछे से शुरू हो कर
बिलकुल वहां तक जाती है
जहां से
गार कर
अमावस की एक भरी-पूरी प्रौढ़ रात
निचोड़े गये दो चार बूंद
कजरारे रंग रंगे तुम्हारे केश
शुरू होते हैं !
शायद वो कोई नस है ...मध्दम सी
नील व्योम की तरफ
लरजती क्वांरी भाप की लतायें !
अक्सर देखा करता हूं मैं उन्हें , निःशब्द
समय की डॊंगी से उतर कर ,
जमे हुये सन्नाटों से लिपटे कुछ क्षणॊं में
जब तुम मगन हो कुछ कर रही
अनभिज्ञ होती हो मुझसे !
तीव्र वर्षण उपरान्त
सद्य स्नात ,खिला हुआ
धवल नीलाभ गगन
और उस पर उस किनारे
अभी अभी उठ कर डूब गये
किसी मधुर राग-सा,
उगा हुआ
आधा इन्द्रधनुष !
ठीक कान के पास से
नव्य हरित लतिका प्रतान सी
एक हल्की सी रेखा
ठुड्डी के पीछे से शुरू हो कर
बिलकुल वहां तक जाती है
जहां से
गार कर
अमावस की एक भरी-पूरी प्रौढ़ रात
निचोड़े गये दो चार बूंद
कजरारे रंग रंगे तुम्हारे केश
शुरू होते हैं !
जैसे सफेद बर्फ के पहाड़ पर
छिटकती सुबह की पीली आंच से उलझ कर नील व्योम की तरफ
लरजती क्वांरी भाप की लतायें !
समय की डॊंगी से उतर कर ,
जमे हुये सन्नाटों से लिपटे कुछ क्षणॊं में
जब तुम मगन हो कुछ कर रही
अनभिज्ञ होती हो मुझसे !
मन में मेरे सामने की पहाड़ी पर
रूपायित हो उठता है तीव्र वर्षण उपरान्त
सद्य स्नात ,खिला हुआ
धवल नीलाभ गगन
और उस पर उस किनारे
अभी अभी उठ कर डूब गये
किसी मधुर राग-सा,
उगा हुआ
आधा इन्द्रधनुष !
सुन्दर कविता.
ReplyDeleteकेनवस पे जैसे कोई चित्र उभर आया ...
ReplyDeleteबहुत खूब ...
बहुत ही मोहक शब्द चित्र ! अनुपम !
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