कभी कभी
मुझसे ही खुद को बचाते हुये
मेरे भीतर से कुछ -
सफ़ेद -नीले धुएं के पेंड़ सा
निकल आता है . . . .
कुछ ऎसा ,
जो बिलकुल
मेरे बावजूद होता है
और
स्वायत्त होता है ! !
(फिर भी),(लोभ वश )
मैं
जलते-बुझते सुनहरे शब्दों की लड़ियां
अपने वृ॒न्तों पर सजाये
उस कल्प-वृ॒क्ष को
(बस)
सहेजता हूं ,
प्रदर्शित करता हूं
अपनी औकात भूल ,
अपने गर्व में जोड़ता हूं , , , ,
और
भरसतः
बने ही रहने देता हूं
अपने इस भरम को
कि रचना यह
मेरी है
किन्तु
वस्तुतः तो
रचता
वही है मुझे .. . . .. .
अपने आविर्भाव में भी . . .
अपने अवगाहन में भी .. . .
अपनी अभिव्यक्ति में भी .. . . ..
कभी कभी , मेरे बावजूद ! !
मुझसे ही खुद को बचाते हुये
मेरे भीतर से कुछ -
सफ़ेद -नीले धुएं के पेंड़ सा
निकल आता है . . . .
कुछ ऎसा ,
जो बिलकुल
मेरे बावजूद होता है
और
स्वायत्त होता है ! !
(फिर भी),(लोभ वश )
मैं
जलते-बुझते सुनहरे शब्दों की लड़ियां
अपने वृ॒न्तों पर सजाये
उस कल्प-वृ॒क्ष को
(बस)
सहेजता हूं ,
प्रदर्शित करता हूं
अपनी औकात भूल ,
अपने गर्व में जोड़ता हूं , , , ,
और
भरसतः
बने ही रहने देता हूं
अपने इस भरम को
कि रचना यह
मेरी है
किन्तु
वस्तुतः तो
रचता
वही है मुझे .. . . .. .
अपने आविर्भाव में भी . . .
अपने अवगाहन में भी .. . .
अपनी अभिव्यक्ति में भी .. . . ..
कभी कभी , मेरे बावजूद ! !
no comment.
ReplyDeleteyour link is given in chitthaa charchaa. please visit and enjoy.
ReplyDeleteLink of ChiTtha Charcha:
http://chitthacharcha.blogspot.com
@उसके पीछे के भाव प्रिय बनाते हैं।
ReplyDeleteहाँ, पर भाषा भी पाडित्यपूर्ण है......