किसी बहुत प्रिय ने ही कहा था की बड़े हृदयहीन हो तुम , उसी के लिए -
जो हूँ ,वो तो होना ही पड़ेगा !
अब जो हूँ , वह होने में मेरा कोई चुनाव तो है नहीं , कोई हस्तक्षेप तो है नहीं ,
मतलब जो हूँ .............
वो हूँ ही !
तो ,जो हूँ, वो बने रहने के लिए मैं तब तक स्वतंत्र हूँ जब तक मेरे इस होने से
किसी अन्य को कोई कष्ट नहीं पहुंचता !
सो , मैं खुद को , बिलकुल खुद तक समेटता हूँ ,
अपने विष खुद उपजाता हूँ , खुद ही समोता हूँ !
अपनी आग पर खुद ही उबलता हूँ , भाप बनता हूँ , फिर चुपचाप पानी बन लौट आता हूँ !
मेरे बाहर का वातावरण तब मुझे क्षुद्र और स्वार्थी कहता है
और कहता है की मैं एक कीड़ा हूँ !
एक नन्हीं -सी आरामदायक उदासी के साथ मैं इसे स्वीकारता हूँ ,
यह स्वीकार अपने पीछे कुछ क्षोभ और एक भुरभुरी-सी असंतुष्टि छोड़ जाता है !
तब , मैं जो हूँ , उसके अलावा कुछ और होना चाहता हूँ .... ...फिर से ......
लेकिन तभी , कड़ाके की सर्दी -सा कोई अनजाना खौफनाक डर
आकर मुझे जकड़ लेता ही.......
और मैं दुबककर खुद में वापस घुस जाता हूँ ! ! !
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