Thursday, October 23, 2008

मैं


किसी बहुत प्रिय ने ही कहा था की बड़े हृदयहीन हो तुम , उसी के लिए -



जो हूँ ,वो तो होना ही पड़ेगा !

अब जो हूँ , वह होने में मेरा कोई चुनाव तो है नहीं , कोई हस्तक्षेप तो है नहीं ,

मतलब जो हूँ .............

वो हूँ ही !

तो ,जो हूँ, वो बने रहने के लिए मैं तब तक स्वतंत्र हूँ जब तक मेरे इस होने से

किसी अन्य को कोई कष्ट नहीं पहुंचता !



सो , मैं खुद को , बिलकुल खुद तक समेटता हूँ ,

अपने विष खुद उपजाता हूँ , खुद ही समोता हूँ !

अपनी आग पर खुद ही उबलता हूँ , भाप बनता हूँ , फिर चुपचाप पानी बन लौट आता हूँ !



मेरे बाहर का वातावरण तब मुझे क्षुद्र और स्वार्थी कहता है

और कहता है की मैं एक कीड़ा हूँ !

एक नन्हीं -सी आरामदायक उदासी के साथ मैं इसे स्वीकारता हूँ ,

यह स्वीकार अपने पीछे कुछ क्षोभ और एक भुरभुरी-सी असंतुष्टि छोड़ जाता है !



तब , मैं जो हूँ , उसके अलावा कुछ और होना चाहता हूँ .... ...फिर से ......

लेकिन तभी , कड़ाके की सर्दी -सा कोई अनजाना खौफनाक डर

आकर मुझे जकड़ लेता ही.......

और मैं दुबककर खुद में वापस घुस जाता हूँ ! ! !

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