Wednesday, April 22, 2015

अन्ततः


मैं जानता हूँ
 रह जाऊँगा अकेले किसी रात जैसे
 सबसे अन्त में बचा रह गया
 कोई पानी का छर्रा
 छहर छहर हुई बारिश बाद।
 पता है मुझे
 टूटने में भी
 सबसे अन्त में होगा मेरा विलगाव
 जब जा चुके होंगे सारे पीले पत्ते
 मुझे कुछ होने का भ्रम देने वाली डार से
 सबसे अन्त में बाँटूगा मैं
 पृथक होने के भाव में जबरदस्ती लिखे सूक्तों का सारांश
 क्योंकि अन्त में तो नहीं बचती कविता भी
 शब्द व अर्थ तो झर चुके होते हैं कब के !

पता है मुझे
 देखूंगा मैं
 सारा का सारा अन्त
 जब जा चुके होंगे सब
 मैं खड़ा रहूँगा
 समय जब खत्म हो रहा होगा
 किसी अनाम अन्तिम कथा को
 मिथक कह
 मैं उसे विदा दूँगा
 आकाश जब रीत रहा होगा
 अन्तिम बार उसे महसूस करूँगा
 साँसों से अन्दर लूंगा
 फिर बाहर कर दूंगा.....

मालूम है मुझे
 अवनि जब अन्तिम बार
 उसी अथाह विस्मृति में
 खोज आयेगी
 एकदा पुनः
 सूरज के गलियारे में अपनी
 खोयी चांदी की गुड़िया...
वहीं रहूँगा मैं
 मुस्कुराता हुआ....
जानता हूँ मैं
 रह जाऊँगा
 किसी रात अकेला....... 

4 comments:

  1. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (24.04.2015) को "आँखों की भाषा" (चर्चा अंक-1955)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।

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  2. सुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
    शुभकामनाएँ।
    मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।

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  3. यहां हर पात पीले हो पतक्षड हो जाते हैं.

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