Friday, May 30, 2014

डिलीवरी



जिसकी देह का हिस्सा वह पैर था वह एक लड़का था, लगभग पन्द्रह सोलह साल का. यूपीएस का एक बड़ा कारटून उतारते वक्त उसका पैर मुड़ गया था. वह दुकान में एक किनारे बैठा , अपने सूज रहे पैर को बार बार इधर से उधर देखता रहा. शायद वह अपने और अपने पैर के बारे में कुछ सोचना चाहता था, और बढ़ रहे दर्द के कारण या अपने आसपास की हवा के कारण ,सोच नहीं पा रहा था.
मैं उसके बगल में बैठा था. वह कभी पैन्ट की मोहड़ी ऊपर खोंस सूज रहे मांस को धीरे धीरे आंजता, कभी थोड़ी देर तक मौन कहीं खोया रहता, तो कभी अन्ततः बीच बीच में एकाक बार कुछ सुड़क सा लेता , जैसे गीली बह रही नाक को वापस लेने का प्रयास. 
मैं चुपचाप था. वह भी. मैंने उसकी तरफ एक बार चोरी से देखा. मुझे उम्मीद थी कि मैं उसके आसूं देख पाऊंगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. आंसू कहीं नहीं थे.   तब अचानक वह मुझे सुनायी देने लगा. दर्द अब मेरी हड़्डियों में भी उठ रहा था.
तभी  अन्दर के दरवाजे से एक चिकनी ताजी दो पैरों वाली चीज बाहर आयी—
“क्या हाल है ? ठीक हो न ?”
लड़का: आं ? न्‍ न्हीं ....लग रहा है टूट गया है. दर्द है. बढ़ता जा रहा है.
चीज: अरे ! ऐसे कैसे टूट जायेगा ! हड्डी है कि थरमाकोल ? जवान हो ! तीस किलो का कारटून तो लं@#% पर उठा देना चाहिये !
कहते हुये वह चीज निर्लज्ज खिरखिराती हंसी में सन गयी, जैसे मवाद से सन गयी हो, और फिर कहा: चलॊ ! ये डिलीवरी मुगलसराय की है ! आज पहुंचना मस्ट है !
लड़का बिना पलक झपकाये किसी अनजान और भयानक बात पर उस चीज की तरफ निरहारते हुए कुछ सोचता रहा. हाथ उसका पैर की नसों को यहां वहां मरोड़ रहा.  

“चलॊ अब निकल लो ! वैसे भी आठ बज गये है! कल मिलना !” 

फिर सन्नाटा हो गया. एक लम्बा सन्नाटा.  बगल में पड़े यूपीएस के कारटून की तरह ही उसकी एक दो सुबकने और सुनी मैंने. 

और फिर कुछ भी सुन न सका.

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