झर झर बादलॊं की बिछावन से
तब नीचॆ खड़ा
नम धरती के
एक छोटे से हिस्से गुथा
एक वृक्ष होता हूं मैं
बिना किसी प्रयास के
स्वयं ही अस्तित्वगत !
उषा के आश्लेष में
रक्ताभ जुराबों से जब
फूट पड़ती हैं कुछ झिलमिल किरनें
तब बादलॊं के
एक सफेद खरगोशी टुकड़े को
अपनी हरी देह पर जगह जगह सजाये
मोक्ष का भी मोह छोड़ चुके
किसी योगी के मन जैसी
थिर और शान्त घाटी होता हूं मैं !
अचानक जब कभी
हवाओं की सोहबत में
भोले भाले रजत मेघ दल
भूल अपने रास्ते
घेर लेते हैं
मेरे आस पास के सब दृश्य –---
दूर पहाड़ पर वो झोपड़ी ...
ढलान पर खड़ा वो अकेला पाइन ...
शिखर पर अटका वो चर्च का त्रिभुज ...
सब ! ! !
तब
इस विलीन हो रहे दृश्य में
मैं
अन्ततः बचा रह गया
एक गैरजरूरी रहस्य होता हूं
स्वंय के लिये ही अबूझ
स्वंय के लिये ही अज्ञेय !
भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया अभिषेक भाई .......
ReplyDeleteसचमुच अज्ञेय
ReplyDeleteकविता ?
ReplyDeleteबहुत गूढ़ है यह सब समझना
ReplyDeleteलेकिन गैर जरूरी कत्तई नहीं...
बहुत सुन्दर !
ReplyDeleteहर बिम्ब बहुत ही खुबसूरत !