दौड़
पड़ा काला गबरा पीछे उसके !
मकड़ी
के जालों ने बांधे पैर ,
उफनती
नदियों ने रोकी राह ,
उसकी
पुतलियों से कंटीली झाड़ियों ने
नोच
लेने चाहे रोशनी के गुच्छे ,
दुधिया
हुआ आसमान ,बरसे चूने के पत्थर !
लेकिन
वह एकनिष्ठ चलता रहा !
अपनी
बन्दूक और काले गबरे से कहा उसने
वह
मसल सकता है शाखांए
लांघ
सकता है नदियां ,
तीक्ष्ण
दृष्टि से भस्म कर सकता है
रास्ते की लिजलिजी मकड़ियां !
रास्ते की लिजलिजी मकड़ियां !
बांधे
सर पर काली पगड़ी
वह,
बेटा किसान का गुजर गया चारागाहों से ,
उत्तुंग
शिखरों ने करना चाहा आक्रान्त अपनी दुर्गम ऊंचाइयों से
बूढ़ा
मनहूस काला कौवा टर्राया “ मरेगा तू एक दिन !”
साथ
ही गिरे मूसलाधार झंझावात
जैसे
आसमान से गिर रहें हो फावड़े ,
किन्तु
वह अविचल ! वह अनवरत ! कहा उसने
फांद
सकता है पहाड़
चीर
सकता है चट्टानें
और
किसी भी क्षण ,
मसल सकता है पुराने मनहूस कौवे की गरदन !
मसल सकता है पुराने मनहूस कौवे की गरदन !
इस
तरह
पहुंचा वह दिन के उस हिस्से में
पहुंचा वह दिन के उस हिस्से में
जहां
सूरज बूढ़ा हो झरने लगा था राख-सा ,
खड़ी
थी सम्मुख रात लिए विस्तृत मुख विवर
यूं
कि जैसे हो कोई बन्दूक की नली ,
या
पुरानी फटी काली पगड़ी ,
या
कि पीछे भूंकता दौड़ता काला कुत्ता !
झर
रहा सूरज झरता रहा राख सा
चिचियाते
रहे मैना और कबूतरों के झुण्ड ,
बढ़ी
घासों ने झुक बिझाये उसके लिये बिछौने ,
और
तब
पीछे छूट चुके काले गबरे के बाद
पीछे छूट चुके काले गबरे के बाद
उसने
तोड़ दी अपनी बन्दूक ,
तार
तार कर डाली अपनी काली पगड़ी !
लेकिन
तभी !
हां ठीक तभी !
हां ठीक तभी !
रात
के श्यामल दरपन में
विहंसा एक इन्द्रधनुष
विहंसा एक इन्द्रधनुष
कि
जैसे उसके हिय की आस-कनी ही खिली हो हो इन्द्रधनुष !
वह
दौड़ा शशक सा तेज़
चढ़
गया ,हो जैसे कोई लोमड़ी
करने
हस्तगत वह इन्द्रधनुष
बर्फ
के बड़े टुकड़े की तरह ! स्वर्ण - वलय की तरह !
फड़फड़ाते
हुये बिखर गये
चिचियाते
मैना और कबूतरों के झुण्ड !
पहाड़
पर घासों ने सीधे कर दिये
अपने श्लथ पड़े डैने !
अपने श्लथ पड़े डैने !
अपनी टूटी बन्दूक के बजाय
किसान के बटे ने
बलिष्ठ बाहुओं में लटकाया जगमग इन्द्रधनुष
वह
विरल दृश्य ! ! !
सरीसृप दौड़ पड़े निरखने ।
हट गये रास्ते से सब जन्तु ,स्वागतेय
रहा भासित सूर्य सा वह इन्द्रधनुष ,
चहुं दिशा गूंज उठा जयगीत ,
आक्षितिज उठे उद्गार ,
यह है शौर्य अतुलनीय
यह है शौर्य अकल्पनीय
है यह शौर्य अविश्वसनीय !
सरीसृप दौड़ पड़े निरखने ।
हट गये रास्ते से सब जन्तु ,स्वागतेय
रहा भासित सूर्य सा वह इन्द्रधनुष ,
चहुं दिशा गूंज उठा जयगीत ,
आक्षितिज उठे उद्गार ,
यह है शौर्य अतुलनीय
यह है शौर्य अकल्पनीय
है यह शौर्य अविश्वसनीय !
वह
उर्जस्वी ! बेटा किसान का !
चला घर को उमंग में
झुलाये कन्धे पर इन्द्रधनुष .
चला घर को उमंग में
झुलाये कन्धे पर इन्द्रधनुष .
nice poem...good one...
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