दीर्घापांग*
!
जाने दो , गया , जो गया
अब क्या लेना उससे !
जाने दो , गया , जो गया
अब क्या लेना उससे !
ढ़ूढ
लो तुम कण्व आश्रम में
नये पते ,
नये वृन्त , नये पुष्प !
नये पते ,
नये वृन्त , नये पुष्प !
बस
जब स्मृति संस्पर्श से
महत्तम हो व्यथा के समापवर्त्य
बैठ द्वारे कण्व कुटि के
उन धान के पौधों को निहारना
जिन्हें शकु रोप छॊड़ चली गयी है !
खड़े होंगे वे वैसे ही अभी जस के तस
बढ़ेगें फूलेंगे फलेंगे झरेंगे सूखेगे फिर वे
इस बार बिना शकु के रोपे ही
खुद उगेंगे
बनकर दूसरे
नये पौधे नहीं
बल्कि वही , ठीक वही
जिन्हें शकु रोप छोड़ चली गयी है !
दीर्घापांग !
तुम वहीं बैठना !
घण्टों, विलम्बित मौन से शून्य में खिंचे हुये
सजल उनींदी पलकों में
किसी अन्जान पहाड़ी पुहुंप सी
सरलता की तरलता भर
उन धान की पंक्तियों को निहारते रहना
साथ ही निहारना
विस्तृत सम्मुख
विशद स्पष्ट नील व्योम पट मध्य
समूह संपृक्त , अकेला भटकता रह गया
असहाय गल-दश्रु , करतल आकृति धारी श्वेत जलद पुंज !
इन सब स्मृति अवशेषॊं में भटकते हुये जब
थोड़े परिचित थोड़े अपरिचित , किन्तु बुझ चुके
किसी भव्य घनीभूत स्नेह ममत्व पुंज की छाया
छू निकले
तुम्हारे शिशु नवनीत कपोलों को
महत्तम हो व्यथा के समापवर्त्य
बैठ द्वारे कण्व कुटि के
उन धान के पौधों को निहारना
जिन्हें शकु रोप छॊड़ चली गयी है !
खड़े होंगे वे वैसे ही अभी जस के तस
बढ़ेगें फूलेंगे फलेंगे झरेंगे सूखेगे फिर वे
इस बार बिना शकु के रोपे ही
खुद उगेंगे
बनकर दूसरे
नये पौधे नहीं
बल्कि वही , ठीक वही
जिन्हें शकु रोप छोड़ चली गयी है !
दीर्घापांग !
तुम वहीं बैठना !
घण्टों, विलम्बित मौन से शून्य में खिंचे हुये
सजल उनींदी पलकों में
किसी अन्जान पहाड़ी पुहुंप सी
सरलता की तरलता भर
उन धान की पंक्तियों को निहारते रहना
साथ ही निहारना
विस्तृत सम्मुख
विशद स्पष्ट नील व्योम पट मध्य
समूह संपृक्त , अकेला भटकता रह गया
असहाय गल-दश्रु , करतल आकृति धारी श्वेत जलद पुंज !
इन सब स्मृति अवशेषॊं में भटकते हुये जब
थोड़े परिचित थोड़े अपरिचित , किन्तु बुझ चुके
किसी भव्य घनीभूत स्नेह ममत्व पुंज की छाया
छू निकले
तुम्हारे शिशु नवनीत कपोलों को
और
साथी मेरे भोले ! कर जाय व्यर्थ इक धक्के से
इन सब स्मृति अवशेषों को ,
सब धान के पौधों को ,
मालिनी तट के कुन्जॊं को ,
अमलतास के झक झक गुच्छॊं को ,
तब रखना धैर्य मित्र मेरे !
साथी मेरे भोले ! कर जाय व्यर्थ इक धक्के से
इन सब स्मृति अवशेषों को ,
सब धान के पौधों को ,
मालिनी तट के कुन्जॊं को ,
अमलतास के झक झक गुच्छॊं को ,
तब रखना धैर्य मित्र मेरे !
लगे
यूं कि जैसे
आश्रम में जब सांध्य आराधन ,यज्योपरान्त
कण्व सहित सब ऋत्विक गण
बैठे हो ध्यान मौन तल्लीन
गोधलि के विस्तृत प्रांगण में ,
शिरीष गुल्मों पर
वन ज्योत्स्ना हो रही बिखर ,
जंगली सन्नाटे की वीणा पर
राग यमन हो डूब रहा
और तुम बैठे हो
वृक्ष तले गुमसुम
क्षितिज द्वित्व में विलीन होता दिवाकर अगोरते
तभी हां ठीक तभी
श्रेय पूरित
प्रांजल नेहमयी
वही परिचित शकु की पुकार
का छद्म आभास हो आये
और व्याकुल मन इधर उधर देख
इक बूंद बन ढ़रक जाये !
तब रखना धैर्य , मित्र मेरे !
आश्रम में जब सांध्य आराधन ,यज्योपरान्त
कण्व सहित सब ऋत्विक गण
बैठे हो ध्यान मौन तल्लीन
गोधलि के विस्तृत प्रांगण में ,
शिरीष गुल्मों पर
वन ज्योत्स्ना हो रही बिखर ,
जंगली सन्नाटे की वीणा पर
राग यमन हो डूब रहा
और तुम बैठे हो
वृक्ष तले गुमसुम
क्षितिज द्वित्व में विलीन होता दिवाकर अगोरते
तभी हां ठीक तभी
श्रेय पूरित
प्रांजल नेहमयी
वही परिचित शकु की पुकार
का छद्म आभास हो आये
और व्याकुल मन इधर उधर देख
इक बूंद बन ढ़रक जाये !
तब रखना धैर्य , मित्र मेरे !
ज़बरदस्त कविता . प्रवाह अत्यंत प्रभावशाली है .
ReplyDeleteसही में ? बढिया है तब तो.
ReplyDeletevery nice expression .
ReplyDeleteगोधूली=गोधूलि।
ReplyDeleteकविता बहुत प्रभावी है। बहुत खूबसूरत। अपेक्षित।
हम तो इस पंक्ति पर ही लट्टू हैं -
ReplyDelete"..वृक्ष तले गुमसुम/ क्षितिज द्वित्व में विलीन होता दिवाकर अगोरते.."
अद्भुत शब्द संयोजन और सम्मिलित भाव प्रभाव !
ReplyDelete*ज्योत्स्ना
वाह!
ReplyDeleteअति सुन्दर सृजन.
ReplyDeleteअत्यंत सुन्दर काव्य-कृति..
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