थोड़ी देर की ख़ामोशियाँ भी परेशान कर देती थी
क्या हुआ कुछ हुआ क्या की फ्रिक हो जाती थी
इश्क़ की शुरुआत के ये दिन भी क्या दिन थे , अच्छा!
अब तो ये है कि जितनी देर खामोशी उतना अच्छा
ज़िक्र था जहान था जोश था खुमार था ज़लज़ला था
हल्की सी खरोंच पर बन्दा आईसीयू उठा लाता था
नयी नयी पहचान के ये दिन भी क्या दिन थे, छलकते थे !
अब तो ये है कि चल रहा है जो चल रहा चलने दे
तारीफ़ों के पुल थे बाग गुलज़ार थे ख़्वाबों के
मनाने रूठने की पतंगें , मंझे उलझते थे जवाबों के
नये दिनों की बात ,गये दिनों की बात भी क्या बात थी देखो !
अब तो अपनी खुद समझते बैठो देखते बैठो ठण्ड रखो !
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