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Sunday, July 30, 2017
आजकल
हर तरफ धूल है
धुँआ है
गुबार है।
गर्द इतिहास की
चुभ रही है
पलकों में।
वर्तमान का पानी
धुले
स्पष्ट कर दे
सब गर्द
हालाकिं
वह खुद ही
धुंधला है
गंदला है।
ज्ञान गुप्त रोग सा
बढ़े है
दिनों दिन ,
अपने ही निस्तारण
में प्रयासरत,
अपंग, निष्प्रभ !
आजकल ,
1 comment:
Amrita Tanmay
August 13, 2017 at 11:04 PM
ऐसा ही है ये - आजकल ।
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ऐसा ही है ये - आजकल ।
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