Sunday, May 4, 2014

ओ ! मेरे अमृत !



( यह कविता मेरे सहकर्मी श्री निर्दोष बोरकर की एक अंग्रेजी कविता की पुर्नरचना है. )

उस अद्भुत अनुक्षण के अन्तहीन विस्तार में
अपने अकथ रूप चक्रवात में
सोख लिया मुझे तुमने!
परत दर परत,
घूंट पर घूंट ,
जैसे उतर गया हो मुझमें
रक्ताभ सांद्र सोम
हर शिरा शिरा ,हर रोम रोम !
होऊं मैं मौन ,
निस्तब्ध...अवसन्न... !

उस हरित-नील-प्रदीप्त पहाड़ी दोपहर
के गर्भ में , मेरी कल्पना के आकाश में ,
तुम ! मंजरित नव कुसुम !
तुषार शुभ्र-वत्र-भूषित
लिए पीत-रश्मि-प्रतान-गुम्फित सूर्य
नवनीत-मृदुल, हिम-धवल अनावृत गले में हार-सा
तुम्हारे नव पल्लवित सौम्य उरोजों तक
पहुंचता हुआ ........

...जम गया हो जैसे वह गुम्फित सूर्य  
सान्द्र-सोम-प्रभाव-लब्ध, अवचेतन-सा
मेरे और मेरी चेतना मध्य !

ओ ! मेरे अमृत !
सोख लिया तुमने मुझे
परत दर परत
घूंट पर घूंट,
उस अनुक्षण .

मानता हूं
हूं अभिशापित
कि पिऊं रक्त यूनिकार्न* का !
तो क्या !
जीना है
मुझे इस कुत्सित नश्वर संसार में
एक अभिशापित प्राण सा
कि
हां ! कि
सोख सको तुम मुझे !
परत दर परत
घूंट पर घूंट!


      *ग्रीक माईथालजी के अनुसार यूनिकार्न का रक्त पीने वाले जीवन जीने के लिए या यूं कहें कि अमर होने के लिए अभिशापित होते हैं. “it was commonly described as an extremely wild woodland creature, a symbol of purity and grace, which could only be captured by a virgin.” wiki

1 comment:

  1. प्रिय आर्जव, ऐसी कविता पर प्रतिक्रिया देना श्याम जुनेजा की सामर्थ्य नहीं...ऐसी कविताएँ तो पीने के लिए होती हैं और उसके बाद चुप हो जाने के लिए भीतर बाहर चुप हो जाने के लिए ..क्या कहू.. दृष्टि से नहीं गुजरी होंगी ..वरना इन चीज़ों को पढना तो मेरी लत है.. भले ही कुछ कह न पाऊँ ..इसकी तो प्रथम पंक्ति ही गजब के सम्मोहन में बाँध गई मित्र "उस अद्भुत अनुक्षण के अन्तहीन विस्तार में" ऐसा ऐसा अनुक्षण जिसमें एक साथ पता नहीं पता नहीं कितना कुछ घट रहा है एक साथ घट रहा है पर मालूम नहीं पड़ता कि कुछ हो भी रहा है ..आपकी यह कविता भी कुछ ऐसी ही है ..अपनी सादगी में कुछ यों लिखा गया था मुझसे भी
    वहीँ का वहीं होता हूँ मैं और समय बह रहा है मुझसे होकर अनवरत फिर क्यों लगता है जैसे बहा जा रहा हूँ मैं और ठहरा हुआ है समय ..काश मुझे आप जैसे अद्बुत कवियों का सानिध्य मिल पाता..!

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