Sunday, May 3, 2015

चार पैरों वाला दूलहा

वो हंसती भी थी
रोती भी थी।
एक ही साथ।

घरवालों ने आज ही
तय किया था
खरीदना
उसके लिए
एक चार पैरों वाला इन्जिनीयर दुलहा।
नीलामी पूरी पारदर्शी थी
सबके लिए एक दाम
भ्रष्टाचार मुक्त
पन्द्रह लाख कैश एक चारपहिया ।


वो चुप थी ।
बोलती भी थी ।
एक ही साथ।

मां ने डाटा भी था
बहुत आज
बन्द करो दिनभर अब
ये मोबाइल में अनजाने मैसज पढ़ना
बाहर जाना जीन्स पहनना
चार पैरों वाले दुलहे को
पसंद नहीं ये सब।


वो दिखती भी थी ।
अदृश्य भी थी।
एक ही साथ।

आज ही हुई थी उसकी
अंग अंग नुमाइश
लोग देखने आये थे
अपनी ही मां को न जाने क्या हुआ था
मां ने ही सजाया संवारा
ट्रे ले भेजा था दलान में ।
सांस्कृतिक वेश्यावृत्ति के इस धन्धे में
बात ऐसे ही तो बनती है...
चेहरे का आकार कैसा है...
चमड़ी की चमक कैसी है....
स्तनों का उभार कैसा है......


वो थी भी।
और नहीं भी थी।
एक ही साथ।

4 comments:

  1. इतने दिनों बाद तो कोई समझ में आने वाली कविता लिखी मगर यह क्षुब्ध कर गयी :p

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  2. वाह, बहुत खूब। आजकल 4 पैरों वाले दूल्‍हे ही ज्‍यादा दिखाई पड़ रहे हैं।

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  3. सुन्दर रचना ,सामायिक , बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करते हुए , बेहतरीन अभिब्यक्ति , मन को छूने बाली पँक्तियाँ
    कभी इधर भी पधारें

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