कलिंग युद्ध क्षेत्र पर छिड़ा घमासान अभी धीरे धीरे शान्त हो रहा है । वहां बहुत कुछ लिया गया और बहुत कुछ दिया गया । इन सब के बीच बहुत कुछ ऐसा भी रहा जो देते देते नहीं दिया गया ………..अतएव लेते लेते नहीं लिया गया । खैर , चल रही प्रक्रियाओं को देखते देखते घुन जैसा एक प्रश्न मन में किर्र किर्र करने लगा कि क्या सब कुछ साझा किया जाना जरूरी है ? अगर किसी ने कुछ कहा (यहां सही या गलत के किसी वैल्यू जजमेन्ट की कोई बात नहीं है।) तो क्या यह जरूरी है कि उससे उपजे अर्थ एवं अर्थ से वाष्पीकृत हो मनःतल पर जमी भावनाएं सबसे बांटी ही जाय ? या दूसरे शब्दों में , प्रासंगिकता से अलग थोड़े व्यापक परिपेक्ष्य में , भीतर के व्यक्ति को जो अनुभूतियां वाह्य समाज से जोड़ती हैं , उनका प्रकार कैसा हो ?
कल दोपहर जब टुन्ना भईया ने फोन किया कि तैयार रहना शाम को अरविन्द जी के यहां चलना है तो लगा कि अब घुन के लिये “मैलाथ्यान ” का इन्तजाम हो जायेगा । ससुराल में पहली बार सबके लिये रसोईं तैयार करती, डरती , सकुचाती दुल्हन सी सांझ की शुरुआत में ही मैं लंका से नाटी इमली के लिये निकल गया । कैम्पस में , जहां तापमान हमेशा सामान्य से दो तीन डिग्री कम ही रहता है , काली साफ सड़कॊं के किनारे लाइन से खड़े ,कोहरे की सफेद चादर ओढ़े , पीले रोड लैम्पों का अलाव तापते , हरे पेड़ शेली का वेस्ट विंड गा रहे थे ………”इफ़ विन्टर कम्स , कैन स्प्रिंग बी फ़ार बिहाइण्ड ? ……।”
नाटी इमली चौराहे पर टुन्ना भईया एवं हेमन्त भईया पहले से ही थे । हम सभी अरविन्द जी आवास पर पहुंचे । वहां पहुच कर एक चीज का मैं बेसब्री से इन्तजार कर रहा था ---अगर वह थोड़ी और देर तक न आती तो ---मैं मांग ही बैठता ---लेकिन आ ही गयी – गरमागरम काफी ।
बातचीत शुरु हुयी । ब्लाग्स, ब्लागर्स एवं ब्लागराएं ।
ब्लाग जगत में जिन चीजों को लेकर बहुत गंम्भीर एवं पर्याप्त हो हल्ला मचा हुआ है उन पर अरविन्द जी को बोलते हुये सुनकर लगा कि वे इन सब चीजों में पूरी तरह संलग्न होकर भी सारी चीजों से एक स्तर पर एकदम पृथक हैं । किसी बात के बीच या अन्त में उनके जोरदार एवं भरपूर ठहाके मेरी इस ’सोचान’ को न जाने क्यॊं पुष्ट करते रहे ।
इन सब के दौरान हम सभी ओझा जी का इन्तजार भी कर रहे थे ।पहुंचने वाले तो वे चार ही बजे थे लेकिन बलिया से उन्होंने पैसेन्जर ट्रेन पकड़ ली और अपने आप को ऐसी परिस्थितियों में डाल दिया जहां उनकी धैर्य एवं सहनशीलता इत्यादि संचित उदात्त मनोवृत्तियों की पूरी परीक्षा हो सकती थी । …….(हुयी भी।)
बातॊं बातों में कुछ देर के लिये मुझसे मेरा प्रश्न कुछ विस्मृत सा हुआ था कि किसी बात पर अरविन्द जी ने कहा कि मैं किसी भी चीज को वैयक्तिक तौर पर नहीं लेता । जो चीज बाहर से मिली है उसे जी कर फिर पूरा का पूरा लौटा देना ही अच्छा समझता हूं । सब कुछ “शेयर” कर लेता हूं । सब सामने रख देता हूं । (फिर एक जोर का ठहाका !)
सुना मैंने । सुनता रहा ।
तभी फॊन आया कि ओझा जी की ट्रेन बनारस के सिटी स्टेशन पर आ गयी है । ड्राइवर(शैलेन्द्र) के साथ मुझे ही उन्हें रिसीव करने जाना है ।
रात के करीब बारह बजने वाले हैं बाहर ठण्ड सोलह साल की हो गयी है । बनारस सो गया है । कुहरा कम है । सर्द ठण्डी हवाओं से जलते कुत्तों के पिल्ले टें टें कर रहे है ।चलती गाड़ी में शैलेन्द्र मेरे जैकेट को कुछ देर तक बहुत ध्यान से देखता रहा । फिर बोला , आपको ठण्ड लग रही होगी , चाहें तो मेरा कम्बल ले सकते हैं । उसने देखा नहीं होगा लेकिन हल्की सी मुस्कराहट अनायास तैर आयी मेरे होठॊं पर । कुछ पन्क्तियां याद आ रही थी , उनके अर्थ भी स्पष्ट हो रहे थे धीरे धीरे----“(जीवन सर्वदा ही वह अन्तिम कलेवा है जो जीवन दे कर खरीदा गया है और जीवन जलाकर पकाया गया है और) जिसका साझा करना ही होगा क्योंकि वह अकेले गले से उतारा ही नहीं जा सकता—अकेले वह भॊगे भुगता ही नहीं। ”
इन अनुभूतियों को साझा करने के लिए आभार,हिमांशु का उपनाम पता चला
ReplyDeleteनिश्चित ही उन्होंने खुद की कही बातो को सेंसर करनेके लिए कहा होगा न ?
और हेमंत जी (न जाने क्यों करकरे की याद आ जाती है ) भी तो कुछ बोले थे
दुसरे अभिषेक जी से तो आपने तवारुफ़ ही नहीं कराया ,क्या इसलिए की उन्होंने
इंतज़ार करा कर सारा हौसला ही पस्त कर दिया था ?
सब देख लिए लिन्क!!
ReplyDelete’सकारात्मक सोच के साथ हिन्दी एवं हिन्दी चिट्ठाकारी के प्रचार एवं प्रसार में योगदान दें.’
-त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाना जरुरी है किन्तु प्रोत्साहन उससे भी अधिक जरुरी है.
नोबल पुरुस्कार विजेता एन्टोने फ्रान्स का कहना था कि '९०% सीख प्रोत्साहान देता है.'
कृपया सह-चिट्ठाकारों को प्रोत्साहित करने में न हिचकिचायें.
-सादर,
समीर लाल ’समीर’
रात का ढलना और ढण्ड का जवान होते जाना - दोनों की विपरीतगामी क्रियाओ में, सब कुछ शेयर कर लेता हूँ का स्पष्टीकरण- बताता है न बहुत कुछ !
ReplyDeleteहाँ, अभिषेक भाई को तो छोड़ ही दिया !
Sundar sansmaran!
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