अभी तो व्यथा के श्रृंगों
का आयतन
वर्तनी की आकृतियॊं में नापता हूं ! ! !
भावना के पारावार में
खो जायेगें दुख भी जब
तुम्हारे स्मरण की विस्मृत मधुकरी तब
मन के वातायनॊं पर सजाउंगा !
का आयतन
वर्तनी की आकृतियॊं में नापता हूं ! ! !
भावना के पारावार में
खो जायेगें दुख भी जब
तुम्हारे स्मरण की विस्मृत मधुकरी तब
मन के वातायनॊं पर सजाउंगा !
खो चुके संसार के आर्द्र स्वप्नों को
अभी तो
संतप्त चेतना के ताप से भूंजता हूं ! ! !
उन्माद के संघनन में
झरेंगें जब पीत-पात स्वप्न भी तब
तुम्हारे अविरल नेह की रम्य बांसुरी धुन
हृदय तट के भाव चातकॊं को पिलाउगां ! ! !
तुम्हारे अविरल नेह की रम्य बांसुरी धुन
ReplyDeleteहृदय तट के भाव चातकॊं को पिलाउगां ! ! !
बहुत सुन्दर नये नये अलंकारों से सजी कृति के लिये बधाई
शब्दों को सुंदर भावो में पिरोया गया है
ReplyDeleteआर्जव !
ReplyDeleteकिया न कमाल !
अब तक तो सब धुन सुनते-सुनाते थे आप
पिलाने भी लगे !
और यह क्या ---
'' अभी तो व्यथा के श्रृंगों
का आयतन
वर्तनी की आकृतियॊं में नापता हूं ! ! !
भावना के पारावार में
खो जायेगें दुख भी जब
तुम्हारे स्मरण की विस्मृत मधुकरी तब
मन के वातायनॊं पर सजाउंगा ! ''
......... सही कह रहा हूँ इन पंक्तियों पर तो ,
अगर नन्द की गाय आपकी कविता हो जाय
फिर कविता - प्रेमी मयूर नाचते हुए गाने
लगेगा , रसखानी - अंदाज में --------
'' आठहूँ सिद्धि नवों निधि को तुम नन्द की गाय चराय बिसारो''
अभी फिर आऊंगा ..
सुन्दर और सशक्त अभिव्यक्ति -कुछ और जिम्मेदारी निभायिये न जो गुरुजन आपको दे रहे हैं !
ReplyDeleteपहले तो श्री अमरेन्द्र जी की टिप्पणी पर हर्षित हूँ...!अंश-अंश सहमत हूँ..!
ReplyDeleteअभी तो व्यथा के श्रृंगों
का आयतन
वर्तनी की आकृतियॊं में नापता हूं ! ! !
यह इस तरह लिख पाना आर्जव इतना आसान नही..तुम कमाल हो भाई मेरे...!
अभी तो व्यथा के श्रृंगों
ReplyDeleteका आयतन
वर्तनी की आकृतियॊं में नापता हूं ।
--बहुत जल्दी शब्दों में डाक्टरी कर ली आपने..
..ढेरों बधाई.
-आप से अपेक्षाएँ बढ़ रही हैं चाहता हूँ कि आम जन की समस्याओं को भी अपनी कविता का विषय बनाएँ..
bahut sundar!
ReplyDeleteJaise samvedanaayen atyant hi ghanibhoot hokar himkhandon si jam gayi hon aur chetana ke maddham taap se pighal kar boond boond tapak rahi hon.
अभिषेक बच्चे, तुमसे ईर्ष्या हो रही है।
ReplyDeleteसुना उनको और तोड़ दिए साजो सामान
हम आज फिर अपने इश्क पर इठलाए हैं।
भिक्षा की गठरी जैसे भूली हो यादें
खोल गाँठें आज अन्न दाने बिलगाए हैं।
तुम्हारी इस कविता ने यह दिखा दिया है कि भावों को शब्दों के नवीन प्रयोग कैसे नया रूप दे देते हैं!
इश्क किया कि नहीं अभी ?
;)
क्या अच्छा हो कि अपने ब्लॉग वक्तव्य को हिन्दी में भी दे दो !
ReplyDeletebahut behtareen......
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