भाव
जो मन में रहे ,
कभी शब्द न बने ,
वृंत पर पुष्प -से खिले ,
साँझ झरे नही,
अपने ही सौरभ में
लीन हो गए.......
उन्हें भी
जान लिया तुमने ,
हतप्रभ , अकिंचन मै
चढ़ा भी न सका उन्हें
ठीक से ,
फिर भी
मंदस्मित स्नेहिल स्वीकारोक्ति से
अर्पित उन्हें
बना लिया तुमने ! ! !
यात्राएं
जिनका साक्षी
समय भी न हुआ ,जिनकी गति
बहुत देर तक कलपती
अधूरी इच्छाएं
व तड़पते भाव- खग रहे
उन्हें भी
नाप लिया तुमने,
बिना मागें ही
सब दे दिया तुमने!! !
हारा मै , फिर भी
पुरस्कृत किया तुमने !
वृंत पर पुष्प -से खिले ,
ReplyDeleteसाँझ झरे नही,
अपने ही सौरभ में
लीन हो गए.......
bahut khoob!
'यात्राएं
जिनका साक्षी
समय भी न हुआ '
waah ,kya baat hai!
bahut umda likhte hain aap!
अरे छुटकू, यह किसे सम्बोधित है? सब ठीक ठाक है न ?
ReplyDeleteचीनी पुरस्कृत को ऐसे लिखते हैं क्या ?
अभी चेक किए तो पाए कि हम तुम्हरे अनुगामी भी नहीं हैं, हद है। लो अभी बनते हैं।
बहुत गहरी बात!!
ReplyDeleteहार कर पुरस्कृत होना ...या हारे हुए को पुरस्कृत करना ...मुहब्बत और इंसानियत की उम्मीद जगाती है ...बहुत सुन्दर कविता ...!!
ReplyDeletebahut hi gahre bhav iti choti umra mein........lajawaab.
ReplyDeleteबढ़िया लगी यह कविता भी आपकी !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteबहुत -२ धन्यवाद
'' हारा मै , फिर भी
ReplyDeleteपुरस्कृत किया तुमने !''
--- बस यही जीत है , हार की
महादेवी जीके यहाँ ''हारी होड़ '' का अर्थ भी द्रष्टव्य है ..
वो ठुमरी के बोल हैं न !
'' इश्क है इक चौसर की बाजी
हार है इसमें जीत ..
............. सजनवा तुम क्या जानौ प्रीत ''
बस तुम्हारी इस कविता में बेग़म अख्तर को सुनने जैसा अनुभव किया ..
.............. आभार ,,,
meri kavitaa, "mera tumhaaraa baramaasaa" par comment ke liye aabhaar.
ReplyDeleteमेरा कहना है कि "मनमानी" न करना ही मन का अनुशासन है. वह इसी अर्थ में कहा गया है.
disciplined mind (man) jab apne aapko aur saath mein parivesh ko realise kar pata hai to wahi uskaa dekhaa hua....bus itnaa hi kahaa chahtaa hoon..
saadar-sa-prem
aap ka prashanshak hoon
बहुत ही सुंदर रचना है। ब्लाग जगत में द्वीपांतर परिवार आपका स्वागत करता है।
ReplyDeletepls visit...
www.dweepanter.blogspot.com
bahut hi sundar!!!
ReplyDeleteइतना आभार..! निश्चय ही समर्पण में भी गहराई रही होगी।
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