नश्वर है देह ,
मन और
हर वह कन जो जन्मा है ।
समय के पाश में जकड़ी , भंगुर है वो आभा
जो सुबह आज अकिंनच पुष्प में
विहस उठी है ।
विस्तृत सीमाहीन आकाश में तैरते हुये
एक छोटा सा कोना भी नहीं नाप पायेगा
वह लघु संगीत
जो आज सुबह उषस् के स्वागतेय
चिड़िया के कण्ठ से पिघल कर बह चला है !
और
अन्ततः
लौट ही जायेगा वह निरपेक्ष प्रकाश
जो अनायास निर्मित लघु वातायनों से
अन्धेरे की प्यास लिये
चुपचाप सा अन्दर चला आया है !
और
एक दिन
वरण करेगी
मृत्यु
हर कण का, हर क्षण का ।
किन्तु फिर भी , हां , फिर भी
शेष रहेगा
बहुत कुछ ।
बहुत कुछ
ऎसा
जो शाश्वत न होते हुये भी नश्वर नहीं है ।
और जो बहुत मिटाया जाकर भी
फिर उतना ही सदैव शेष है ।
बहुत कुछ
ऎसा
जैसे
उस फूल के खिलने की आदत
और
उस चिड़िया के गाने की आदत !
बहुत सुन्दर कविता. अगर मैं कह भी दूं कुछ विशेष इस रचना के लिये तो रह जायेगा कुछ न कुछ शेष जो कुछ कहने/ लिखने के ठीक पहले मुझमें जागा था.
ReplyDeleteलाजवाब रचना...मेरे पास शब्द नहीं है प्रशंशा के लिए....बहुत सुंदर शब्दों का अद्भुत प्रयोग किया है आपने...वाह
ReplyDeleteनीरज
अद्भुत भाव!! बेहतरीन रचना. क्या बात है!
ReplyDeleteबड़ी जीवन्त कविता है
ReplyDelete---आपका हार्दिक स्वागत है
चाँद, बादल और शाम
बहुत आध्यात्मिक भावपूर्ण रचना
ReplyDeleteऔर
ReplyDeleteएक दिन
वरण करेगी
मृत्यु
हर कण का, हर क्षण का ।
किन्तु फिर भी , हां , फिर भी
शेष रहेगा
बहुत कुछ ।
बहुत कुछ
ऎसा
जो शाश्वत न होते हुये भी नश्वर नहीं है ।
और जो बहुत मिटाया जाकर भी
फिर उतना ही सदैव शेष है ।
बहुत कुछ
ऎसा
जैसे
उस फूल के खिलने की आदत
और
उस चिड़िया के गाने की आदत !
aur apane vicharo ke badalne ki adat.bachcha ye duniya hai aise hi chalati rahati hai.
achha laga.