राम !
तुम घबराना नहीं,
तनिक भी डरना नहीं !
तुम्हारी नियति का फैसला
एकदम संवैधानिक होगा !
सब कुछ
साक्ष्य और धाराओं के
सटीक सहयोग से उपजेगा !
तब तक
राम !
तुम बैठ कर
थोड़ा आराम करो !
खाली समय में कुछ किताबें पढ़ो ,
बाल्मीकी रामायण ,
उपनिषद इत्यादि तो होगें नहीं पास तुम्हारे,
रामचरितमानस के ही
कुछ पन्ने पलटॊ ,
कुछ गुनगुनाओ
एकदम मत डरो !
\\\\\\\\\\\\\\\\\\\\\\\\\\\
मोहम्मद !
तुम भी मेरी बात मानो ,
चिन्ता एकदम न करो !
असुरक्षित प्रशासनिक राजनैतिक संबन्धों से
जरूर मेरे इस देश की देह पर दिखने लगे हैं
एड्स के कुछ लक्षण
लेकिन तुम निश्चिन्त रहो
कोर्ट पर विश्वास रखो
क्योंकि
कोर्ट को नहीं बनानी है फिर से सरकार
और कोर्ट की अलमारी में सौभाग्यवश
नहीं रखा है कोई भी धर्मग्रन्थ !!!
तो तुम भी
रेहल की गर्द पोछो
और कुरान खॊलकर
कुछ पन्ने पलटो!
जरा देखो कि
सब अर्थ सब व्याख्याएं
ठीक ठाक हैं न !
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Thursday, September 30, 2010
Friday, September 24, 2010
प्रतिध्वनि !
तुम्हारी आवाज
छोटे छॊटे
अलग अलग
असंबद्ध टुकड़ों में
बहुत देर तक
गिरती रही
मेरे भीतर के किसी
गहरे
और गहरे
कुएं में
हां कुएं में !
सनसनाती हुयी
तेजी से
नीचे
और नीचे
बढ़ती
तुममें आयी बदलाहट का अर्थ लिये
मरे शब्दॊं की शिराओं में दौड़ती
जिन्दा आवाजें
अपने पीछे
कुछ हल्की फीकी पड़ती
आवाजों का एक धुआं -सा छोड़ती
अन्ततः उस गहरे कुएं में
बहुत अन्दर तक गयी !
लेकिन वहां
सन्नाटा
जमें हुये लावा की तरह
इतना अधिक और गाढ़ा था
कि
शायद
दम घुट गया उनका !
क्योंकि शून्य मन
जोहता हूं बहुत देर से
अभी तक नहीं आयी
कोई प्रतिध्वनि !
छोटे छॊटे
अलग अलग
असंबद्ध टुकड़ों में
बहुत देर तक
गिरती रही
मेरे भीतर के किसी
गहरे
और गहरे
कुएं में
हां कुएं में !
सनसनाती हुयी
तेजी से
नीचे
और नीचे
बढ़ती
तुममें आयी बदलाहट का अर्थ लिये
मरे शब्दॊं की शिराओं में दौड़ती
जिन्दा आवाजें
अपने पीछे
कुछ हल्की फीकी पड़ती
आवाजों का एक धुआं -सा छोड़ती
अन्ततः उस गहरे कुएं में
बहुत अन्दर तक गयी !
लेकिन वहां
सन्नाटा
जमें हुये लावा की तरह
इतना अधिक और गाढ़ा था
कि
शायद
दम घुट गया उनका !
क्योंकि शून्य मन
जोहता हूं बहुत देर से
अभी तक नहीं आयी
कोई प्रतिध्वनि !
Sunday, September 19, 2010
वेश्यावृत्ति
जीवन तो
न जाने कब का
चुक गया था
फिर वहां
मौत थी
वही मौत
॒॒॒॒॒॒॒
न जाने क्यॊं
चीजें पैदा हुयी थी
न जाने क्यों चीजें
खत्म हो गयी
फिर वहां
मौत थी
वही मौत
॒॒॒॒॒॒॒
सब फूल झर गये
पंछी सब मर गये
वृन्त सब पीत हुये
शब्दॊं में भर गयी सड़ान्ध
उत्सव की स्मृतियों में लग गये दीमक
मर कर सड़ गया
प्यार
देह को उसकी
नोच कर कौवे
खा गये
फिर वहां
मौत थी
वही मौत
॒॒॒॒॒॒॒
समय ने खॊले
फिर
न जाने कितने
नये चकलाघर
धुंआधार चलने लगी
फिर वही
हां वही
जीवन की अबाध वेश्यावृत्ति
Wednesday, September 15, 2010
कविता और बुढ़िया
इस चक्कर में
कि किसी दिन
एक ही बार
लिखूंगा कोई खूब अच्छी सी
जबरदस्त कविता
मैंने नहीं लिखने दी
खुद को
अनेक छोटी छोटी
अ- अच्छी कविताएं!!!!!
इस तरह अनेक भाव उमगे
और नष्ट हो गये !
मैं ,अमानुष ! पाखण्डी !
देखता रहा चुपचाप
इन भ्रूण हत्याओं को
यह सोच कर कि
भावों , संवेदना-वृत्तों का भी
होता है पुर्नजन्म
और अभिव्यक्ति की स्पृहा को त्याग
जब मन में दम तोड़ता है कोई अनभिव्यक्त भाव
तो नष्ट होने के बजाय वह प्रवृत्त होता है
अपने परिष्कृत विकास के नये आयाम में !!!!
इसलिये ही
हर शाम
मैं सड़क नहीं
गली वाले रास्ते से
पैदल ही जाता रहा अस्सी घाट
क्योंकि गली के मुहाने वाली लकड़ी की गुमटी में
कोई चाय पान की दुकान नहीं
बल्कि रहती है
चार पांच बरसात झेल चुकी
बगईचा अगोरने के लिए लगाई गयी
पुआल की मढ़ई-सी जर्जर बुढि़या !
चूंकि बुढि़या जीवित है !
और जिन्दा रहने पर खाने को कुछ चाहिये
सो बुढ़िया रोज शाम को
चार फुट की गुमटी के ठीक बाहर
(सौभाग्यवश) आठ फुट की इस व्यस्त गली में
अपने छोटे से हड़प्पा की खुदाई में प्राप्त हुये स्टॊव
पर रोटियां पकाती है !
बाहर ही , शाम को भी, नहाती है ,
फिर खुद को
और कुछ अधूरे स्वप्नों सी
उन पकी अधपकी रोटियों को लेकर
वापस अपनी गुमटी में लौट जाती है ,
शायद इस दुनियां से बहुत दूर !
मैं बगल में ,
किसी दुकान पर बैठा
यह सब देखता हूं
और बस देखता हूं !
कुछ सोचता नहीं हूं
हर रोज बस थोड़ा और
आक्रान्त व
कुण्ठित होता हूं !
अनेक भाव उफनते हैं
उमगते हैं
कई नपुंसक आक्रोश व
कुष्ठ रोगी संवेदनाएं
जिनसे बड़ी अच्छी कविता बन सकती है ,
कविता बन जाने को
चिचियाते , घिघियाते हैं
लेकिन
कलम खुट्ट खुट्ट करता , टॆबल पर चुपचाप
बहुत देर तक
मैं कुछ सोचता बैठा रहता हूं
तब तक
न जाने कब
पन्नों की पक्तियों में
उभर आती हैं
साईकिल के हवा निकले ट्य़ुब जैसे
रोटी बेलते हाथों की झुरियां
और मैं चुपचाप
बिना कुछ लिखे
कापी बन्द कर उठ जाता हूं !
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