Saturday, May 29, 2010

निःशब्द


चलती हवा में

झूमते पेड़ की खुशी का गीत

मुझॆ पढ़ने नहीं आता !


तुम्हारे शब्द भी कहां पढ़ पाता हूं ! ! !


बसन्ती बयार में

मचलती चिड़िया की चहकन

मुझे लिखने नहीं आती !


तुम्हारी हंसी भी कहां लिख पाता हूं ! ! !


पहली फुहार में

तर बतर भीजतें पलाश की बूंद बूंद खुशी

मुझे समझ नहीं आती !


तुम्हारी निःशब्द मुस्कुराहटे भी कहां समझ पाता हूं ! ! !


ठिठुरती रात के बाद

जवान हुयी ताजा धूप का अल्हड़पन

मुझे पीने नहीं आता !


तुम्हें आंख भर देख कुछ बोल कहां पाता हूं ! ! !

Sunday, May 23, 2010

दूब


बिना जिल्द की

वह फटी पुरानी कापी,

अपनी सब किताब की

ढेरी से मैं अलग रखा करता हूं

जिस पर बीच बीच में थककर

मैं कुछ नया लिखा करता हूं ।



वैसे तो पढ़ने की इस मेज पर

हैं बहुत कापियां

जिस पर मैं धरती और नक्षत्र

लिखा करता हूं


लेकिन दबी किनारे सबसे नीचे

बीते वर्ष की बची पन्नों वाली पर,

भीतर बढ़ती हरी दूब की

कचनारी कोंपले लिखा करता हूं ।


बिना जिल्द की

वह फटी पुरानी कापी,

अपनी सब किताब की

ढेरी से मैं अलग रखा करता हूं !

Wednesday, May 19, 2010

निर्मोही


तुम्हारे शब्दों में

कुछ फूल हॊते हैं !


उन्हें छूकर

मैं जाग जाता हूं !


जगाओगे नहीं मुझे ?

निष्ठुर !



तुम्हारी चहकन में

कुछ रंग होते हैं !


उनके परस से मैं

बहक जाता हूं !



बहकाओगे नहीं मुझॆ ?

पाथर !



इन रंग और शब्दों से

मेरी सांस बनती है !

आंखॊं में चमक पिघलती है

और

बातॊं में खनक फटकती है ! !



लेकिन तुम .......

चुप हो अब भी ?

कुछ तो कहो

निर्मोही !