Saturday, October 31, 2009

सपने


टूटते हैं सपने
बिखरते हैं सपने
प्रतिकूलताओं के प्रस्तर खण्डों में दब
कलपते हैं सपने
तड़पते हैं सपने

मरकर भी कहां मर पाते हैं सपने
कभी भूत तो कभी जिन बन जाते हैं सपने
तब अक्सर ही सच्चाई की लाशों
डराते हैं ये भूत सपने

धधक चुकी आग में
अन्तिम चिनगारी- से टिमकते हैं सपने
कभी बादल से पानी
तो कभी महुआ बन पेड़ों से गिरते हैं सपने
हर चोट पर
जख्म का बहाना बना
बिना कुछ कहे
चुपके से उग आते हैं सपने


(यह कविता 17 दिस. 2007 को अमर उजाला समाचार पत्र में प्रकाशित है । )

Thursday, October 29, 2009

प्रभाव

तत्क्षण ही
खूब प्रभावित हो जाना
कोई बड़ी अच्छी बात नहीं है ।


तुम अत्यन्त प्रतिभाशाली
महान व विचारवान हो !
तो इससे मुझे
कॊई फर्क नहीं पड़ जाता !
तुम्हारा यश एक दिन
फैलेगा दुनिया के कोने कोने में
और लाघं कर काल की सीमा
सदैव जिन्दा रहोगे तुम
अपने विचारों में ,
तो इससे मुझे
कोई फर्क नहीं पड़ जाता ।

मैं तुम्हें
देखता हूं
सुनता हूं
गुनता हूं
और मानता भी हूं
लेकिन तुम्हारा सच
मेरा सच नहीं हो सकता ।

फुटकर प्रेरणायें
मन को कमजोर करती हैं ।
मुझे अपनी क्षुद्रता
स्वीकार है ।

Monday, October 26, 2009

दोस्ती


आज मैंने
अपने भगवान जी पर
एक एहसान किया

मन में फुदक आयी
एक अनरगल इच्छा को
भगवान जी से बिना कहे
मन ही में खुरच खुरच कर ,
खिरच खिरच कर
खत्म कर दिया !

शाम को रोज की बात चीत में
यह सब उनसे कह खुश हुआ ।
रोज की तरह
वे भी कुछ बोले नहीं
बस थोड़ा सा मुस्कुराये ।

Friday, October 23, 2009

क्यों धूप क्यों !


धूप !
आजकल हर सांझ
जाने से पहले तुम ,
इतनी गहरी पीली
जर्द
क्यों हो उठती हो ?

क्यॊं
पेड़ों के मटमैले हरे झुरमुट से रिसकर
पीछे दीवार के पर्दे पर पड़ते
तुम्हारे
निर्वाक व निमीलित बिम्ब
इतने घने, प्रगल्भ
व प्रगाढ़ पीत हो जाते हैं
कि
अनिमेष उन्हें देखते देखते
तन्मय मैं महसूस करने लगता हूं
सृष्टि के उन बिल्कुल आदिम शुरुआती दिनों के
उस प्रथम पुरुष की आहट
अपने भीतर !

धूप !
तुम्हारे इस अद्भुत शान्तिमय
निःशब्द पीलेपन पर
मैं अचानक
बहुत कुछ ---कुछ बहुत ज्यादा ---विशाल व सुन्दर ---
कह देना चाहता हूं !
शब्दों में भर देना चाहता हूं !
लेकिन
क्यों ?......... धूप !!! ?
बहुत छटपटा कर भी
बहुत खॊजबीन कर भी
अन्ततः
मैं कुछ कह नहीं पाता !
तुम्हारी उस
भव्य पीत निस्तब्धता की
मधुरिम लय को
जो बांध सके
ऎसे शब्दों की श्रृंखला
सिरज नहीं पाता !!!

क्यों धूप क्यॊं ?

Tuesday, October 20, 2009

बच्चे .....


बच्चे !
असंख्य
जटिल
कठिन
प्रक्रियाऒं के
कितने
अच्छे
सहज
सरल
परिणाम !

वाह ! ! ! !

Wednesday, October 14, 2009

प्रतिदान


यदि कभी

कुछ दूँ


मैं तुम्हें


तो तपाक से


थैंक्यू न बोलना !!!





(अच्छा नही लगता

बिलकुल भी ! )



लेना .......


चुप रहना .........


फिर हल्का सा .......


बहुत धीरे से.....


मुझे देखते हुए


मुस्कराना ......



बस




Monday, October 12, 2009

10 अप्रैल 2009 (डायरी से .......)


सब खाली खाली है.......... । परीक्षाएं खत्म हो गयी हैं ....। दस दिन हो गए .........। लगभग सब अच्छा ही गया है । कम्प्यूटेशनल लिग्विंस्टिक्स व लेक्सिकोग्राफी के पेपर में कुछ कठिनाईयों के अलावा । पिछले चार पांच दिनों में कुछ खास नहीं किया है । नींद ……….और खूब नींद……..। नींद भी कितनी गज़ब की चीज़ है । कुछ पलों के लिये जिन्दगी से मोहलत ।खुद से मोहलत ।हर उस चीज से मोहलत जिनसे हम बनते हैं। तो अभी कुछ आगे की प्रवेश परीक्षाऒं की तैयारी का प्रपंच कर रहा हूं ।
बिलकुल ठण्डा पड़ा हुआ हूं....... । बेहद..... साधारण सी जिन्दगी जीता हुआ........... । भटकनें तो हैं---भटकनें , मतलब वो चीज़ें जिन्हें मैं खुद से जुड़ा नहीं देखना चाहता या वे चीज़ें जिन्हें मैं खुद को करता हुआ नहीं देखना चाहता !!!........... वे हैं तो………. लेकिन वे भी मरियल सी पड़ी हुयी हैं किसी किनारे क्यॊकिं मैं उनका कोई मजबूत विरोध ,जैसा करता रहा हूं अब तक , नहीं कर रहा हूं । वे भटकाती हैं । मैं भटक जाता हूं । वे बुलाती हैं । मैं उनके साथ उठकर चल देता हूं ।अन्ततः वे फिर मुझे वापस छोड़ जाती हैं ।मेरे पास । अकेले । वे बस थोड़ा सा थका देती हैं । मैं सो लेता हूं । सांझ को उठता हूं । चिप्स खाकर चाय पीता हूं । सोये सोये उपन्यास पढता हूं ।

जिन्दगी शायद बिना किसी कारण के भी जीयी ही जा सकती है । बस ऐसे ही जीना……….. । कुछ आभास , जो परिस्थितियों द्वारा निचोड़े जाने पर हममें सिलवटॊं की तरह बच गये हैं और जो हमें सदा अनिश्चित ढ़ंग से किसी निश्चित दिशा , किसी तरफ ढकेले जा रहे हैं ……………वे किसी “कारण” के रूप में नहीं देखे जा सकते । वे हैं और वे चीज़ों को पैदा भी कर रहे हैं लेकिन वे कारण नहीं हैं । वे इतने नीचे हैं कि इतने उपर घट रहे किसी कार्य से कारण के रूप में उनका कोई सम्बन्ध नहीं जुड़ सकता ।

Tuesday, October 6, 2009

कृत्रिम.....नहीं ...सृजित !!!!


तुम्हारी अन्धेरी सुबकनों को अपने स्नेह की लय में डाल जिसने उन्हें धीमी मुस्कराहटों के संगीत में बदल दिया .... अपने इस क्षणिक उत्कर्ष में उसे यूं विस्मृत न करो ! यथार्थ की क्रूर वीथिकाओं में गतिशील, निर्मम कालगति से अनुबन्धित जीवन के गहन वात्याचक्रॊं से लय न मिला सकी तुम्हारी डगमगाती लड़खड़ाती हॄदय की थापों को अपने तरल प्रांजल उर्जस्वल शीतल अंकों में निःशेष सोख अपने अन्तस की उष्मा के निःस्वार्थ दान से जिसने उन्हें चुप नहीं होने दिया ……..उसे इस विश्व--मरूस्थल में उत्थान व श्रेष्ठता की मरीचिकाओं के पीछे इस तरह न बिसारो ……….कृतज्ञता यदि अन्तस से हुलस कर छलक न सकी है और आह्लाद में उमगकर यदि अस्तित्व नतप्रणत नहीं हो सका है ....तो......सप्रयास कर भावों का सृजन व संकलन खुद में विकसने दो एक घनी कृतज्ञता.....कृत्रिम नहीं....सृजित..!!!!!....अहर्निश...अक्षुण्ण…..संलग्न...!

Saturday, October 3, 2009

गोल्डिग ! वे बच्चे नहीं थे ! *

विलियम गोल्डिंग अंग्रेजी के एक महान उपन्यासकार हैं । अपने प्रसिद्ध नोबल पुरस्कृत उपन्यास “लार्ड आफ़ द फ़्लाइज़” में इन्होंने दिखाया है कि बच्चे भी निर्दोष (Innocent) नहीं होते ।उपन्यास में एक स्कूल के बारह वर्ष तक की उम्र के बच्चों का एक दल छोटे से सुनसान द्वीप पर बिना किसी वयस्क के पहुच जाता है । जीवन के लिये उपयुक्त सभी परिस्थितियों के होते हुये भी ये बच्चे अन्ततः हिंसक हो उठते हैं एवं एक दूसरे की हत्या करने लगते हैं ।


वे बच्चे नहीं थे ,
गोल्डिंग ! ! !
मैं कहना चाहूंगा तुमसे
कि जिन्हें
छोड़ा था तुमने
उस निर्जन सुनसान
प्रौढ़ रहित द्वीप पर
वे बच्चे नहीं थे !

वे मात्र
परावर्तन थे
“विकसित” “आधुनिक” व “सभ्य”
मानव की उत्क्षिप्त ,
विकराल व भ्रष्ट अवधारणाऒं के ।

जिन्होंने
अपने बालपन के
सहज सारल्य व
नैसर्गिक सौन्दर्य की अनुपम सुषमा
को बिसारकर कलुषित करते हुये
तुम्हारे रचे उस स्वप्न द्वीप में
मानवीय अन्तःस्थल स्थित
सहजात पाशविक विषण्णता का
पुनरारम्भ किया ,
वे बच्चे नहीं थे ,,,,
वे बस
उन स्मृतियों के विकास मात्र थे
जिसमें मां ने पहली बार
अस्वीकार की थी उनकी कोई मनुहार
और प्राप्त हुआ था उन्हें
बर्बर झिड़कियों से युक्त
एक हिंसक प्रत्युत्‍तर ! !

पारस्परिक विद्वेषों व
आन्तरिक स्वार्थों के वशीभूत हो
जो अन्ततः करने लगे थे
एक दूसरे की नृशंस हत्यायें ,
वे बच्चे नहीं थे !
वे बस
उन प्रकियाऒं के विश्लेषण मात्र थे
जिसमें
एक छोटी सी गलती पर,
कक्षा में उनकी द्वितीयता पर
पिता ने तोड़ दी थी
क्रूरता की सारी हदें
और दिया था उन्हें
हिंसा एक नवीन संस्कार !!!!

वे बच्चे नहीं
मात्र
परावर्तन थे ।


*यह कविता काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग से प्रकाशित होने वाली पत्रिका “सम्भावना” ,मार्च २००७ में छप चुकी है । यहां थोड़े से सुधार के साथ पुनः प्रस्तुत कर रहा हूं।

Thursday, October 1, 2009

सत्य के साथ प्रयोग अभी जारी है !!!



लकड़ी के डण्डों पर टिकी
मुरचहे टीन की छत , पोलीथीन की दिवारें !
जुलाई महीने की सड़ी उमस भरी रातों में
आसपास की बजबजाती नालियों में जवान हुये
मोटॆ मटमैले मच्छर
चीथड़ों से बार-बार उघर आती
उसकी टांगॊ को
बड़ी आसानी से सूंघ लेते है ।
सामने टाट पर
बगल के भव्य मकान की
यहां तक पहुच रही मध्दम पॊर्च लाइट में
रिक्शा चालक
उसका दारूबाज निकम्मा
सूखे सैजन जैसा बाप
पसरा रहता है और
उसकी पतली टागों पर
लिपटी चिचुकी चमड़ियों से
थोड़ा और खून चूस लिया जाता है ।
वह छटपटाता है ।
दर्द से बिना आवाज चिल्लाता है ।
…….लेकिन जोर से रोता नहीं ।


जोर-से रोता नहीं
इसलिये नहीं कि रोकर वह
बल्ब के आसपास फडफडाते
बरसाती कीड़ों जैसी मां से
बेवजह दो चार झापड़ खाना नहीं चाहता ।
इसलिये नहीं कि
बार बार रोने के लिये भी
दम चाहिये ,
छाती में अन्न का जोर चाहिये !
इसलिये नहीं ………
वह जोर से रोता नहीं क्योंकि
वह प्रयोग कर रहा है ।

बधायी हो गांधी जी ! ! !
सत्य के साथ प्रयोग अभी जारी है ।

घाटी की सफेद सुर्ख बर्फ को
डर है कि कहीं वह
“लाल ” सोखते सोखते
अपनी सफेदी न खॊ दे !

रंगीन खुशमिजाज पक्षी सब सोच में हैं
कि बच्चे उनके
सुमधुर नैसर्गिक कलरव के बजाय
कहीं बन्दूकॊं व बमों की तड़तड़ाहट सा
बोलना न सीख जांय !

मुम्बई में ताज के बाद अब
दूसरे बड़े होटल
अपनी बारी के इन्तजार में हैं क्योंकि
हमले का मास्टर माइण्ड अभी वहां
कुछ राजनैतिक शिरकतों में व्यस्त है !!

इन सब के बावजूद
बातचीत जारी है ,
माननीय जन लगे हुये हैं
ब्याह में बचे खुचे पत्‍तल चाटते कुत्तों--सी वार्ताऎ
निरन्तर है !!

बधायी हो गांधी जी !
सत्य के साथ प्रयोग अभी भी जारी है ।