Friday, February 27, 2009

कवि

अभी रुको थोड़ी देर ।
धैर्य धरो ।

आने दो वे मुहूर्त
जिनमें तुम्हारे
अन्तर्जगत
और
वाह्यजगत
के सब भेद
मिट जांय ।


तब तुम
अपने को कवि कहना ।

मैं तुम्हारे चरण धोकर पियूगां
और
सभ्यता समय के पथ पर
अपनी गति के बारे में
तुम्हारे इंगित की बाट जोहेगी ।

Wednesday, February 25, 2009

परावर्तन

आज मुझसे
कहा तुमने
कि
“बहुत अच्छे” ।

तो
जरूरी नहीं
कि कहूं ही मैं तुमसे
“धन्यवाद” ।


क्यॊंकि
कभी अगर फिर
कहोगे तुम
“कमीने”
तो निश्चित ही
तुम्हें पीटकर
अपना वक्त जाया करने के बारे में
मैं नहीं सोचूगां ।


दरसल , कल ही एक जगह सुना है मैंने
कि नौसेना के कुछ परमाणु वाहक पोत
परावर्तित करने के बजाय सोख लेते है
राडार की खॊजी तरंगों को ।

Sunday, February 22, 2009

चौराहे

हार जीत
प्राप्ति अप्राप्ति
अवनति उत्कर्ष
सब बस एक चौराहे हैं ।


कुछ पल रुकना है ।
आगे का पथ निर्देशन लेना है ।
चल देना है ।


कहीं नहीं ....
कहीं भी नहीं .....
है कोई ठहरी हुयी उपलब्धि ....
कोई जीवित अगत्यात्मक स्थिति !
कहीं नहीं ।

एक समय सब कुछ को --श्रेष्ठतम को , निकॄष्ठतम को
बीत जाना है …रीत जाना है ।

पाने वाले और खोने वाले को अन्ततः
बस देखने वाला होकर
चलते चले जाना है !
चलते चले जाना है !
चलते चले जाना है!

Thursday, February 19, 2009

एक आत्मसंवाद .....


चलो छोड़ो!
बढ़ो आगे !
न रुको !

देखो उधर !
कितनों को जरूरत है तुम्हारी !
चाहते हैं वे कि पास रहो तुम उनके
उन्हीं के बन कर , उन्हीं की चाह में बधे हुये !


थोड़ा अपने को किनारे रखो !
भूलो अपने स्वप्न
अपने वे ऊंचे अभीष्ट ।

और .........
अब तो .........
वह भी लौट चुकी है....
नेह के सब उत्स अधूरे छोड़.....
अपनी एक ऎसी दुनियां में
वापस आना जहां से
कभी सम्भव नहीं होता......!!!


तो फिर.....
अब तुममें बचा ही क्या है ! ! ! ! ! !
झूठे स्वप्न ....भुलावे में रखने वाली इच्छाओं के
अलावा !

वसन्त की इस ऋतु में ,
चहुं ओर जब घनी हरियरी छायी है
बीच में सूखे पेड़ की ठूंठ बनकर
इस तरह खड़े रहना
अच्छा नहीं लगता !



अपने को दे दो !
जाओ ! उनके बीच
टूटकर जलो ,
उनकी ऊष्णता के लिये
अपने में बची अन्तिम आग
को भी
सौंपकर
राख होवो !

(फिर ,
पूरे सन्तुष्ट
किसी किनारे जमीन पर बिखरे बिखरे
सब कुछ बस चुपचाप देखते रहना ।
कोई तुमसे कुछ नहीं कहेगा ।)




Monday, February 16, 2009

परस

छुआ तुमने!!!

न जाने क्यों
भर आयी आंखें
और चुपचाप बह चले
एक दो गीले कन . ......

अश्रुपूरित नयन, विगलित मन
मैं बस विलोकता रहा तुम्हें , विनत.......

Sunday, February 15, 2009

किर्र ..किर्र.....किर्र..किर्र


किर्र ..किर्र.....किर्र..किर्र
लकड़ी के दरवाजे में नहीं
देह में
सुनो
कान लगाकर
अपनी सांस . .....
समय का घुन
अनवरत चर रहा है
तुम्हें.......

Friday, February 13, 2009

क्षणिकाएं

(0)
न भीचों कस कर ।
लिटा स्‍नेहिल अंकों में
बस दुलराओ !


(0)
हवा मैं
फूल तुम ,

मैं तुम में , तुम मुझमें !


(0)
सिन्धु से पूछो
दुष्करता ,
एक समर्पित स्वत्व के वहन की!

(0)
हवा चली ।
फूल
डोल उठा ।

(0)
किया नहीं जा सकता समर्पण
बस यह जाना जा सकता है
कि मै समर्पित हूं !

Wednesday, February 11, 2009

कविता की खोज में . ...

जिस दिन सब कुछ अच्छा रहता है
उस दिन नहीं जन्मती कोई कविता ।


जैसे कल रात जल्दी सोया मैं
और सुबह ही मां ने जगाया ।
पूरे दिन सब कुछ वैसे ही चलता रहा …
कक्षाएं, बेमतलब की पढ़ाई, दोस्त और भटकनें ।

नहीं जन्मी कोई कविता ।

जबकि कल के उस दिन में
जिसमें सब ठीक ठाक गुजर गया !
पूरे दिन जगह जगह , यहां वहां
खोजता रहा मैं कोई कविता ।

हरे सूखे बड़े छोटॆ,हर पेड़ की
डाल डाल देख डाली मैंने
कि शायद बूढ़े -से आम की किसी डण्ठल पर
धीरे धीरे कहीं जाती लाल चूंटों की
एक तल्‍लीन पंक्ति दिख जाय
अथवा
निकम्‍मे-से ऊंचे ताड़ के झुरमुट में बया के घोंसले सी टंगी
कहीं मिल जाय कोई कविता ।

बहुत देर तक टहलता देखता रहा मैं …
दिन ब दिन तेज होते घाम में बड़ी बेरहमी से
खुरदुरी शुष्क निर्विकार रस्सी पर फैला दिये गये
जमकर धुले, चोट से कराहते ,साफ साफ,
कपड़ों को सूखते ।

पहुंचा मैं ऊंचे-से टीले के उस
पीछे वाले पीपर डीह पर भी ,
कि शायद आज भी कोई
अपनी अधूरी चाह की तड़पन का एक धागा
फिर लपेट गया हो वहां!

रास्ते में लौटते वक्त कहीं पर
कुंई कुंई करते , पीछे दौड़ते आ रहे
सफेद प्यारे गन्दे पिल्ले को थोड़ी देर रुककर
सहलाया भी , और चोर है कि साव ,
जांचने के लिये उसके कान भी खीचें ।

छत पर हल्का सा झुक आये आम के पेड़ में
गंदले धूलसने अनुभवी और निरीह-से पल्लव की एक पत्‍ती तोड़
उसकी पतली -सी डण्ठल को ऊंगलियों से पोछ
खूब मन से (मैंने) उसे कुटका भी
और उसके हल्के कसैले स्वाद को
थोड़ी देर तक चुभलाया भी ।

शाम को लंकेटिंग* के दौरान
अमर बुक स्टाल के ठीक सामने
ठेले पर सजने वाली चाय की दुकान पर
पांच रुपये वाली इस्पेसल चाय की छोटी सी गरम डिबिया थामें
पास ही में जमीन पर लगभग ड़ेढ फूट चौड़ी ,
सड़क के पूरे किनारे को अपनी बपौती -सी समझती हुयी
खूब दूर तक बड़े आराम से पसरी
लबालब कीच व तरह तरह के कचरे से अटी पड़ी ,
बस्साती गन्दी नाली में एक ओर
आधे डूबे , फूले , मटमैले पराग दूध के खाली पैकेट और
उस पर सिर टिका कर सोये -से
अण्डे के अभी भी कुछ कुछ सफेद छिलकों को
खड़े खडे़ कुछ समय तक घूरता भी रहा (मै ) ।


लेकिन . . . .. .
अन्ततः नहीं जन्मी कोई कविता
क्योंकि जिस दिन सब कुछ अच्छा रहता है
उस दिन नहीं जन्मती कोई कविता ।

(इसके अलावा , इस खोज में )


बहुत देर तक नीलू के साथ
घूमता रहा (मैं) आईपी माल में ।
मैक डोनाल्ड में पिज्जा खाते ,
थर्ड फ्‍लोर के हाल टू में गजनी देखते
भीतर के गीले अंधेरों में,
सच में प्रेम करने वालों की तरह ही
हमने एक दूसरे को महसूस भी किया
और इण्टरवल में नेस्कफे के काउण्टर पर
एक दूसरे से सचमुच में यह बतियाते रहे कि
यहां तीस रुपये में कितनी बेकार काफी मिल रही है
जबकि कैम्पस में वीटी पर दस में ही कितनी अच्छी मिल जाती है ।

लेकिन . . .. .
आखिरकार. . .. नहीं जन्मी कोई कविता
क्योंकि जिस दिन सब कुछ अच्छा रहता है
उस दिन नहीं जन्मती कोई कविता ।



*शाम को लंका (बनारस में एक स्थान) पर घूमने जाना ।

Sunday, February 8, 2009

रिश्ते

समय की नदी में
छोटी -सी नाव- से बहते हैं रिश्ते !

कभी भावनाओं की लहर ,
तो कभी
उलझन के थपेड़ों में
हुटकते हैं रिश्ते !

कभी
वसन्त के स्वागत में मन की बगिया में
नयी कोंपलों -से विंहसते है रिश्ते
तो कभी और खिंचाव न झेल सकी
तनी रस्सी-से छिंटक जाते हैं रिश्ते ।


कभी सब कुछ खत्म हो कर भी
बहुत कुछ बच जाता है!
और
कभी सब कुछ रह कर भी
कुछ नहीं रह पाता है ।


कभी
कोई टूटी दबी आस चींख पड़ती है
मन के अन्धेरों से,
कभी कोई फांस निकल आती है
भीतर की अतल गहराइयों से ।

कभी बहुत चाह कर भी
कोई प्रश्न उत्तर नहीं बन पाता है ।
और कभी हजारों उत्तरों के शोर में
मध्दम सा वो प्रश्न
अनसुना ही रह जाता है !

फिर भी ,
समय की नदी में
छोटी -सी नाव- से बहते रहते हैं रिश्ते !




Friday, February 6, 2009

सुख . . . .

सुख है ।
निश्चित तौर पर है …
सुख ।

लेकिन
वह कोई
पीपल के पेड़ -सा नहीं ,
जुगनू की अकेली टिमकन -सा है ।

वह
कोई बड़ी- सी नदी नहीं ,
बहाव से किनारे छिटकी ,
मन की घास के फुनगे पर अटकी
आधी भाप बन चुकी पानी की एक बूंद है ।

वह
रात के भींगे, घुप्प एकान्त नीरव अंधेरों में
रूई के फाहों -से, सहज निःसृत,
शान्त मध्दम गुनगुन
संगीतमयी, मिश्री जैसे में शब्दों हुयी
पूरी बात भी नहीं है ।
वह
बीच में आया , पहला और अन्तिम
अति लघु
वो क्षण है
जिसमें
अनायास झिप गयी थी पलकें
और जिसके बाद
बहुत देर तक बहुत से शब्द
ध्वनि की रस्सी छोड़कर हवा के फुग्गे में बैठ
चुप
पूरे शान्त
एक के बिलकुल भीतर से निकल दूसरे के सबसे निचले तल में
मौन झील की समर्पित थिर जलराशि में
धीरे धीरे डूबती किसी चीज जैसे
उतरते रहे हैं, प्रवेश करते रहे हैं,
और वातावरण में बिखरी हुयी
बहुत बहुत ही अचानक घनी हो चुकी
खूब खूब गहरी चन्दनगन्धी मिठास
ओस-सी संघनित होकर
बदराये मन के नील श्याम धुंधलाये अकास में
झिमिर झिमिर बरसने लगी है ।

Thursday, February 5, 2009

तरीके

बाहर के सारे लोग
मुझे अच्छा कहें और
मैं अपने को बुरा जानता रहूं ।
एक यह ।

बाहर के सारे लोग
मुझे बुरा कहें और
मैं अपने को अच्छा जानता रहूं ।
एक यह ।


बाहर भी सब अच्छा कहें
और
मैं भी अपने को अच्छा जानूं ।
एक यह ।


बाहर भी सब बुरा कहें ,
मैं भी
खुद को बुरा जानूं ।
एक यह ।

बस
और कुछ नहीं ।

हर कोई
कहीं न कहीं
इन्हीं के बीच है

या गुजर चुका है !


अपनी पहचान के बहुत से तरीके हैं ।
उनमें से एक यह भी ।
बस
और कुछ नहीं ।




Tuesday, February 3, 2009

चुपचाप बहता मै . . . ..

प्रौढ़ जाड़े की एक सुबह --
ठण्ढ़ी
पीली
और यूं ही खुश!


बेमतलब
कहीं जाता मैं।

टांग पसारे ,
गर्दन में मुड़ा सिर टिकाये
अधखुली आंख,
मस्त काली चमकीली बकरी ।।

गोबर की कीच में,
किसी दूसरी संसृति का स्वप्न देखता सा खड़ा,
शान्त , अनवरत पगुरीरत
भैंस का भोंदू बच्चा ।।


थोड़ी ही दूर पर ,
आधे बने बेकार- से नये घर के रस्सी घिरे अहाते में
छोटे मोटॆ पौधों की हरी झाड़ के बीच ,
मोटे तने वाला , हल्का सा टेढ़ा ,
काट दिये जाने पर फिर से खूब छितर कर पनपा ,
खुद से संन्तुष्ट सैजन ॥

रास्ते पर ही ,हल्का सा किनारे
स्कूल जाने के लिये सरकारी चापाकल पर,
कक्षा सात या आठ में पढ़ने वाला
चड्डी पहनकर जल्दी जल्दी नहाता
झूठ मूठ का एक लड़का ॥

बगल में,
कचरे से आधे पट चुके आधे हरे मैदान में
किसी फेंके गये लत्‍ते से खेलते ,
खीचा तानी में निमग्न
कुत्‍ते के नये तन्दरुस्त , प्यारे पिल्‍ले ॥


इन सबके बीच ,
धूप की अवसन्‍न पीली नदी में
सूखी लकड़ी के एक छोटॆ से डण्ठल सा
किसी भी संम्भावना और किसी भी प्रतिरोध से सर्वथा रिक्त
चुपचाप बहता मैं .. . . . . .. . . . .







Sunday, February 1, 2009

श्रद्धा और अहंकार

श्रद्धा और
अहंकार ।

एक नहीं है तो
दूसरा
होगा ही होगा ।

बच नहीं सकते तुम
कोई और रास्ता नहीं हैं ।

एक
मूंद सब द्वार ,
सड़ाकर
गला देता है !


एक
तोड़ सब बन्ध,
पिघला कर
बहा देती है !

बच नहीं सकते तुम
कोई और रास्ता नहीं हैं !